Wednesday 22 April 2020

अरस्तू का विरेचन – सिद्धांत

( A Theory of Catharsis)

 उनके गुरु प्लेटो के अनुकृति – सिद्धांत के विरोध का परिणाम है | अरस्तू की मान्यता है कि काव्य के अनुशीलन और प्रेक्षण से अतिरिक्त मनोविकार विरेचित होकर शमित और परिष्कृत हो जाते हैं तथा इससे सह्दय को आनंद की प्राप्ति होती है |

विरेचन का अर्थ –

अरस्तू द्वारा मूल प्रयुक्त यूनानी शब्द कथार्सिस (Katharsis) है, जिसका हिंदी रूपांतरण ‘विरेचन’ है | विरेचन भारतीय चिकित्साशास्त्र ( आयुर्वेद ) का पारिभाषिक शब्द है और ‘कथार्सिस’ यूनानी चिकित्साशास्त्र का | रेचन , परिष्करण इत्यादि विरेचन के पर्यायवाची शब्द हैं |

विरेचन का अर्थ है – विचारों का निष्कासन या शुद्धि | चिकित्साशास्त्र में इसका अर्थ है – रेचक औषधियों द्वारा शरीर के अनावश्यक एवं अस्वास्थ्यकर पदार्थ का बाह्य निष्कासन कर शरीर व्यवस्था को शुद्ध और स्वस्थ करना | अरस्तू का कहना है कि त्रासदी , करुणा तथा त्रास भावनाओं का निष्कासन करती है | यह निष्कासन ही विरेचन या उसका कार्य है | अत: विरेचन का अर्थ है – बाह्य विकारों की उत्तेजना और उसके शमन के द्वारा मन की शुद्धि और शांति |

अरस्तू के विभिन्न व्याख्याकार और विरेचन का अर्थ –

अरस्तू के व्याख्याकारों ने विरेचन के चार अर्थ किए हैं |

1. चिकित्सापरक अर्थ – 

वर्जीज ,देचेज सरीखे विद्वानों ने विरेचन का चिकित्सापरक अर्थ प्रकट करते हुए कहा है कि जिस प्रकार रेचक द्वारा उदर की शुद्धि होती है | उसी प्रकार त्रासदी द्वारा मन को शुद्ध किया जाता है अर्थात् करुणा तथा त्रास के उद्रेक द्वारा मन के विकारों को दूर किया जाता है |

2 धर्मपरक अर्थ – 

प्रो. गिलबर्ट मर्रे के अनुसार यूनान में दिओन्युसथ नामक देवता से संबद्ध उत्सव अपने आप में एक प्रकार की शुद्धि का प्रकार था | इस उत्सव में उन्मादकारी संगीत का विधान किया जाता था, उसे सुनकर सुप्त अवांछित मनोविकार शमित हो जाया करते थे | डॉ. नगेन्द्र ने भी लिखा है कि यूनान की धार्मिक संस्थाओं में बाह्य विकारों द्वारा आंतरिक विकारों की शांति उनके शमन का उपाय अरस्तू को ज्ञात था | ऐसा हो सकता है कि अरस्तू को यहीं से विरेचन – सिद्धांत की प्रेरणा मिली हो |

3 कलापरक अर्थ – 

प्रो. बूचर के अनुसार – वास्तविक जीवन में करुणा और भय के भाव दूषित और कष्टप्रद तत्वों से युक्त रहते हैं | दुखांतकीय उत्तेजना में दूषित अंश के निकल जाने से वे कष्टप्रद के बदले आनंदप्रद बन जाते हैं | इस प्रकार कहा जा सकता है कि दुखांतक का कर्तव्य केवल करुणा और त्रास का उद्रेक नहीं वरन एक सुनिश्चित कलात्मक संतुष्टि प्रदान करना भी है | 

4 नीतिपरक अर्थ – 

कई अन्य व्याख्याकारों के अनुसार मनोविकारों की उत्तेजना द्वारा विभिन्न अंतर्वृतियों का समन्वय या मन की शांति और परिष्कृति ही विरेचन है |

विरेचन की विशिष्टताएँ – 

जिन व्याख्याकारों के अनुसार अरस्तू का यह सिद्धांत पूर्ण सिद्धांत है उन्होंने इसकी कुछ विशिष्टताएँ भी बताई हैं, जो इस प्रकार हैं –

1 विरेचन के लिए भय और करुणा के भावों का सम्यक् नियोजन और प्रदर्शन आवश्यक है |
2 घटनाओं के तथा नायक के चयन में बड़ी सावधानी अपेक्षित है |
3 विरेचन यद्यपि दुखात्मक परिस्थितियों और घटनाओं के प्रदर्शन से होता है परन्तु आनंदानुभूति , आत्मपरिष्कार से नैतिक बल तथा धार्मिक संतुष्टि की प्राप्त होती है |
4 इसमें कलात्मक आनंदानुभूति, आत्मपरिष्कार से नैतिक बल तथा धार्मिक संतुष्टि की प्राप्ति होती है |

विरेचन – सिद्धांत पर आक्षेप 

अनेक समीक्षकों ने विरेचन - सिद्धांत की आलोचना की है |

1 एवरे मांड ने इस सिद्धांत को निरर्थक बताया है और कहा है कि यह सिद्धांत ग्रहण करने योग्य नहीं है तथा यह समझ से परे भी है | 

2 लूकस जैसे आलोचकों का मत है कि त्रासदी न तो मानसिक रोगों की औषधि है न रंगशाला बल्कि यह एक अस्पताल है | 

3 आलोचक यह भी आरोप लगाते हैं कि त्रासदी में प्रदर्शित भाव अवास्तविक होते हैं जो हमारे भावों को उत्तेजित नहीं करते, विरेचन की बात तो बहुत दूर है |

निष्कर्ष – विरेचन – सिद्धांत साहित्यशास्त्र की एक महत्त्वपूर्ण एवं विशिष्ट उपलब्धि है | अरस्तू के विरेचन – सिद्धांत की तुलना अभिनवगुप्त के अभिव्यक्तिवाद से की जाती है क्योंकि दोनों विद्वान काव्यानंद या रसास्वादन के मूल में वासनाओं के रेचन की बातें कहते हैं | वस्तुतः अरस्तू का यह सिद्धांत उनकी एक महान उपलब्धि है |

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Tuesday 21 April 2020

प्लेटो और अनुकरण सिद्धांत


यूनानी दार्शनिकों की परम्परा में सुकरात के शिष्य प्लेटो का एक महत्त्वपूर्ण स्थान है | प्लेटो की रचनाओं में ‘द रिपब्लिक’ , ‘दि स्टेट्स मैन’ एवं ‘दि प्रसिद्ध लॉज’ प्रमुख हैं | 

प्लेटो और अनुकरण का अर्थ – 

होमर ने ‘अनुकरण’ शब्द के लिए ‘मीमेसिस’ शब्द का प्रयोग किया था | प्लेटो ने अनुकरण को सभी कलाओं की मौलिक विशेषता बताया है तो कहीं कल्पना तथा रचनात्मक शक्ति के अर्थ में प्रयुक्त किया है | उन्होंने इस संसार का मूल सत्य ईश्वर को स्वीकार करते हुए कहा है कि – ईश्वर के सत्य की अनुकृति यह संसार है और इस संसार का अनुकरण ही काव्य है |  

प्लेटो की मान्यता है कि कवि अनुकृति की अनुकृति करता है |

प्लेटो के अनुकरण – सिद्धांत की मूल मान्यताएँ –

1 ईश्वर द्वारा रचित प्रत्यय – जगत ही सत्य है, ईश्वर स्रष्टा है | 2 वस्तु – जगत,प्रत्यय – जगत की अनुकृति या छाया होने के कारण मिथ्या या असत्य है | 
3 कला - जगत वस्तु – जगत का अर्थात् अनुकरण का अनुकरण होने के कारण और भी मिथ्या है क्योंकि वह अनुकृति की अनुकृति करता है | कलाकार अनुकर्ता है |

प्लेटो और अरस्तू के अनुकरण – सिद्धांत में अंतर -


प्लेटो
अरस्तू
1 प्लेटो ने ‘अनुकरण’ शब्द का अर्थ हू -ब -हू नकल बताया था |
अरस्तू के अनुसार यह पुन: सृजन का पर्याय है |
2 कवि अनुकृति की अनुकृति करता है |
कला प्रकृति और जीवन का पुन: प्रस्तुतिकरण है |
3 कवि को ‘अनुकर्ता’ बताया है |
कवि को कर्ता सिद्ध किया है |
4 काव्यकला को नैतिक और आदर्शवादी दृष्टिकोण से देखा |
सौंदर्यवादी दृष्टि से देखते हुए यह प्रतिपादित किया कि कला प्रकृति की अनुकृति है |



प्लेटो का काव्य पर आक्षेप –


प्लेटो द्वारा काव्य एवं कवि पर गंभीर आरोप लगाए गए | जैसे – 

1 काव्य अनुकृति की अनुकृति है |
2 कवि ना केवल स्वयं अज्ञानी है बल्कि वह अज्ञान का प्रसारक भी है |
3 काव्य क्षुद्र मानवीय भावों पर आधारित होता है | कलात्मक रचनाएँ समाज के लिए अनुपयोगी हैं |
4 काव्य लोगों में वासनाजन्य क्षुद्र भावों को जगाता है | कवि समाज में अनाचार एवं दुर्बलता का पोषण करने का अपराधी है |

प्लेटो के अनुकृति – सिद्धांत का मूल्यांकन 


1. प्लेटो ने अपने युग के काव्य की दूषित प्रवृत्तियों के प्रभाव के कारण कविता पर गंभीर आरोप जड़े पर इसका अभिप्राय यह नहीं कि प्लेटो पूरी तरह से काव्य के विरोधी थे | उन्होंने ऐसी कविताओं को महत्त्वपूर्ण , उचित व प्रभावोत्पादक माना है , जिनमें वीर पुरुषों की गाथा हो या देवताओं के स्त्रोत हो |

2 डॉ. देवेन्द्रनाथ शर्मा के अनुसार कला की अनुकरणमूलकता की उद्भावना का श्रेय प्लेटो को ही है |

3 डॉ. गणपतिचंद्र गुप्त के अनुसार प्लेटो ने कविता को अनुकृति बताकर काव्य – मीमांसा के क्षेत्र में एक ऐसे सिद्धांत की प्रतिष्ठा की, जो परवर्ती युग में विकसित होकर काव्य – समीक्षा का आधार बना | 

नि:संदेह, प्लेटो का अनुकृति - सिद्धांत पाश्चात्य काव्यशास्त्र का एक महत्त्वपूर्ण सिद्धांत है |

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Friday 21 September 2018

प्रेमचन्द युगीन हिंदी उपन्यास

प्रेमचन्द युगीन हिंदी उपन्यास


1.
मुंशी प्रेमचन्द

जन्मकाल – 31 जुलाई, 1880 ई. मृत्युकाल – 08 अक्टूबर, 1936 ई.
माता - आनंदी देवी पिता – अजायबराय
जन्मस्थान – लमही

प्रमुख उपन्यास –
 
1. सेवा सदन – 1918 ई. – यह उपन्यास पहले ‘बाज़ारे – हुस्न’ नाम से उर्दू में लिखा गया था, परन्तु ‘उर्दू’ में प्रकाशित नहीं करवाकर इसका हिंदी अनुवाद पहले प्रकाशित करवाया गया |
 
2. प्रेमाश्रय – 1922 ई. - यह उपन्यास पहले ‘गोशए- आफ़ियत’ नाम से उर्दू में लिखा गया था, परन्तु ‘उर्दू’ में प्रकाशित नहीं करवाकर इसका हिंदी अनुवाद पहले प्रकाशित हुआ |
 
3. रंगभूमि – 1925 ई. – यह उपन्यास भी पहले ‘चौगाने – हस्ती’ नाम से उर्दू में लिखा गया है, परन्तु इसका भी पहले हिंदी अनुवाद ही प्रकाशित हुआ | 

4. कायाकल्प – 1926 ई. 
5. निर्मला – 1927 ई.
6. गबन – 1931 ई. 
7. कर्मभूमि – 1933 ई.
8. गोदान – 1935 ई. 
9. मंगलसूत्र – अपूर्ण उपन्यास ( बाद में पुत्र ने पूर्ण किया )

विशेष तथ्य -


1. ये प्रारम्भ में नवाबराय नाम से उर्दू में लेखन कार्य करते थे | इनके उर्दू कहानी संग्रह ‘सोजे – वतन’ को अंग्रेज सरकार ने जब्त कर लिया | उसके बाद इन्होंने अपना नाम बदलकर प्रेमचन्द रख लिया | इनका मूल नाम धनपतराय था |

2 इन्हें ‘कलम का सिपाही’ और ‘कलम का मजदूर’ भी कहा जाता है |

 

2. जयशंकर प्रसाद


प्रमुख उपन्यास -
 
1 कंकाल – 1929 ई. 
2 तितली – 1934 ई. 
3 इरावती -1938 ई. (अपूर्ण)

विशेष तथ्य -


1 ‘तितली’ इनका आदर्शपरक उपन्यास है |
2 ‘कंकाल’ यथार्थपरक उपन्यास है |
 

3. विश्वंभरनाथ शर्मा ‘कौशिक’


प्रमुख उपन्यास

1. माँ – 1929 ई. 
2. भिखारिणी - 1929 ई. 
3. संघर्ष – 1945 ई.

विशेष तथ्य -

1. ये रसिक स्वभाव के मनमौजी रचनाकार थे |
2. आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी इनके प्रेरणास्रोत माने जाते हैं |

4. आचार्य चतुरसेन शास्त्री


इन्होंने लगभग तीन दर्जन उपन्यास लिखे हैं | ‘वैशाली की नगरवधू’ इनका सर्वप्रसिद्ध उपन्यास है | इसमें व्यक्ति – स्वातन्त्र्य की समस्या उठाई गई है |

इनके प्रमुख उपन्यास निम्न हैं –

1 ह्रदय की परख – 1918 ई. 
2 ख्वास का ब्याह – 1927 ई.
3 अमर अभिलाषा- 1932 ई. 
4 आत्मदाह – 1937 ई.
5 मंदिर की नर्तकी – 1939 ई. 
6 नीली माटी – 1940 ई.
7 पूर्णाहुति – 1947 ई. 
8 वैशाली की नगरवधू – 1948 ई.
9 सोना और खून -1960 ई. 
10 आकाश की छाया में -1961 ई.
 

5. पाण्डेय बेचन शर्मा ‘उग्र’

जन्म – 1901 ई. , चुनार , मिर्जापुर (उत्तर प्रदेश)
प्रमुख उपन्यास -

1 चंद हसीनों के खतूत – 1927 ई. 
2 दिल्ली का दलाल - 1927 ई.
3 बुधुआ की बेटी – 1928 ई. 
4 शराबी – 1930 ई.
5 सरकार तुम्हारी आँखों में – 1931 ई. 
6 कला का पुरस्कार – 1955 ई.
7 कढ़ी में कोयला – 1955 ई. 
8 फागुन के दिन चार – 1960 ई.

6. वृन्दावन लाल वर्मा (1884 – 1969 ई.)


प्रमुख उपन्यास -

1 संगम – 1928 ई. 
2 लगन – 1929 ई.
3 प्रत्यागत – 1929 ई. 
4 विराटा की पद्मिनी – 1936 ई.
5 मुसाहिब जू – 1946 ई. 
6 मृगनयनी – 1950 ई. (सर्वश्रेष्ठ उपन्यास )
7 अमरबेल – 1953 ई. 
8 टूटे काँटे – 1954 ई.

7. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’


प्रमुख उपन्यास -

1 अप्सरा – 1931 ई. 
2 अलका - 1931 ई.
3 निरुपमा – 1936 ई.
4 प्रभावती -1936 ई.

 

8. सियारामशरण गुप्त


प्रमुख उपन्यास -

1 गोद – 1932 ई. 
2 अंतिम आकांक्षा – 1934 ई.
3 नारी – 1937 ई.

9. राहुल सांकृत्यायन ( 1893 – 1963 ई. )

मूल नाम – केदार पाण्डेय

प्रमुख उपन्यास -

1 शैतान की आँख – 1923 ई. 
2 विस्मृति के गर्भ में – 1923 ई.
3 सोने की ढाल – 1923 ई. 
4 जीने के लिए - 1940 ई.
5 मधुर स्वप्न – 1949 ई. 
6 विस्मृत यात्री – 1954 ई.

10. श्रीनाथ सिंह


प्रमुख उपन्यास -
 
1 उलझन – 1934 ई. 
2 जागरण – 1937 ई.
3 प्रभावती – 1941 ई. 
4 प्रजामंडल – 1941 ई. 

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Pragativadi Kavi [ प्रगतिवादी काव्य धारा के प्रमुख कवि ]

Pragativadi Kavi
[ प्रगतिवादी काव्य धारा के प्रमुख कवि ]


प्रगतिवाद – 

राजनीति के क्षेत्र में जो विचारधारा ‘साम्यवाद’ या ‘मार्क्सवाद’ के नाम से जानी जाती है , साहित्य के क्षेत्र में वही विचारधारा ‘प्रगतिवाद’ के नाम से जानी जाती है |अर्थात् साम्यवादी विचारधारा के अनुरूप लिखा गया काव्य ही ‘प्रगतिवादी काव्य’ कहलाता है |

‘कार्ल मार्क्स’ को ही ‘प्रगतिवाद’ का भी आदि प्रवर्तक माना जाता है |

डॉ. नगेन्द्र के अनुसार – “ प्रगतिवादी काव्य की संज्ञा उस काव्य को दी गई जो छायावाद के समाप्तिकाल में 1936 ई. के आसपास से सामाजिक चेतना को लेकर निर्मित होना आरंभ हुआ |”

प्रगतिवाद ‘सामाजिक यथार्थवाद’ के नाम से भी पुकारते हैं |


प्रगतिवादी काव्य की प्रमुख प्रवृत्तियाँ -
1 मार्क्सवाद व साम्यवाद का समर्थन

2 शोषण का विरोध एवं शोषितों के प्रति सहानुभूति की भावना

3 धर्म और ईश्वर का विरोध

4 नारी के सम्मान की प्रतिष्ठा
5 सामाजिक अन्धविश्वासो व रुढियों का खंडन
6 सामजिक भावना का चित्रण
7 ठोस यथार्थ का चित्रण
8 विश्व बंधुत्व की भावना
9 कला के प्रति नवीन दृष्टिकोण
10 युगानुकूल परिवर्तन एवं नव निर्माण की उत्कट लालसा

प्रगतिवाद के प्रमुख कवि

1 नागार्जुन

जन्मकाल – 1911 ई. ( 30 जून , 1911 ई. )
मृत्युकाल – 1998 ई. ( 5 नवम्बर, 1998 ई. )
जन्मस्थान – सतलखा , जिला – दरभंगा
मूल नाम – वैद्यनाथ मिश्र

प्रमुख रचनाएँ -
1 युगधारा – 1953 ई.
2 सतरंगे पंखों वाली – 1959 ई.
3 प्यासी पथराई आँखें – 1962 ई.
4 तुमने कहा था – 1980 ई.
5 खिचड़ी विप्लव देखा हमने – 1980 ई.
6 हजार – हजार बाहों वाली – 1981 ई.
7 पुरानी जूतियों का कोरस – 1983 ई.
8 रवीन्द्र के प्रति
9 प्रेत का बयान
10 आखिर ऐसा क्या कह दिया मैंने

उपन्यास
1 रतिनाथ की चाची
2 वरुण के बेटे
3 दुःखमोचन
4 कुंभीपाक

विशेष तथ्य -
1 नागार्जुन मैथिली में ये यात्री के नाम से लिखते रहे तथा हिंदी में इन्हें बाबा नागार्जुन के नाम से जाना जाता है |

2 ये दीपक पत्रिका के सम्पादक रहे |

3 अन्याय , शोषण एवं अत्याचार के विरोधी , मजदूरों के हिमायती

4 व्यंग्यपरक रचनाओं के कुशल शिल्पी |

2. केदारनाथ अग्रवाल

जन्मकाल – 1911 ई.
मृत्युकाल – 2000 ई.
जन्मस्थान – ग्राम – कमासिन , जिला – बांदा ( उ. प्र.)

प्रमुख रचनाएँ -
1 नींद के बादल – 1947 ई.
2 युग की गंगा – 1947 ई.
3 लोक और अलोक – 1957 ई.
4 फूल नहीं रंग बोलते हैं – 1965 ई.
5 आग का आईना – 1970 ई.
6 पंख और पतवार -1979 ई.
7 हे मेरी तुम – 1981 ई.
8 कहे केदार खरी – खरी 1983 ई.
9 बंबई का रक्तस्नान -1983 ई.
10 जमुन जल तुम – 1984
11 बोले – बोले अबोल – 1985
12 जो शिलाएं तोड़ते हैं – 1985
13 आत्मगंध

विशेष तथ्य -
1 ये पेशे से वकील थे |

2 साम्यवाद के प्रति दृढ़ आस्था |

3 सच्चे जनवादी कवि

4 इन्हें ‘सोवियत भूमि पुरस्कार’ एवं ‘साहित्य अकादमी पुरस्कार’ प्राप्त हुआ था |

3. डॉ रामविलास शर्मा

जन्मकाल – 1912 ई.
मृत्युकाल – 2000 ई.
जन्मस्थान – ग्राम – ऊँच , जिला – उन्नाव (उ. प्र.)

प्रमुख रचनाएँ -
1 रूप तरंग – 1956 ई.
2 सदियों के सोये जाग उठे – 1988 ई.
3 इस अकाल वेला में – 1988
4 बुद्ध वैराग्य तथा प्रारम्भिक कविताएँ – 1997
5 ऋतु संहार

विशेष तथ्य -
1 ये कवि के बजाय एक श्रेष्ठ गद्यकार के रूप में प्रसिद्ध हुए हैं |

2 ‘निराला की साहित्य साधना’ ( जीवनी ) के लिए इनको 1970 ई. में साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला |

4. शिवमंगलसिंह सुमन

जन्मकाल – 1915 ई.
मृत्युकाल – 2002 ई.

प्रमुख रचनाएँ -
1 हिल्लोल
2 जीवन के गान
3 प्रलय सृजन
4 पर आँखें नहीं भरी
5 विन्ध्य हिमाचल
6 एशिया जाग उठा
7 वाणी की व्यथा
8 मिट्टी की बारात

विशेष तथ्य -
1 गाँधी की अपेक्षा मार्क्सवाद के समर्थक हैं |

2 शोषण व अन्याय का विरोध उनकी रचनाओं में है |

3 ‘मिट्टी की बारात’ रचना के लिए 1974 ई. में साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला था |

5. रांगेय राघव

जन्मकाल – 1923 ई.
मृत्युकाल – 1962 ई.

प्रमुख रचनाएँ -
1 अजेय खंडहर – 1944 ई.
2 पिघलते पत्थर – 1946 ई.
3 राह के दीपक – 1947 ई.
4 मेधावी – 1947 ई.
5 पांचाली – 1955 ई.

विशेष तथ्य -
1 इनका मूल नाम ‘त्र्यंबक वीर राघवाचार्य’ था |
2 ‘पिघलते पत्थर’ इनकी मुक्तक काव्य रचना है |
3 ‘मेधावी’ और ‘पांचाली’ आख्यानक रचनाएँ हैं |

6. त्रिलोचन शास्त्री

जन्मकाल – 1915 ई.
मृत्युकाल – 2002 ई.

प्रमुख रचनाएँ -
1 धरती – 1945 ई.
2 दिगंत – 1957 ई.
3 काव्य और अर्थबोध
4 गुलाब और बुलबुल
5 मैं उस जनपद का कवि हूँ
6 ताप के तापे हुए दिन
7 शब्द

विशेष तथ्य -
1 ये जीवन में निहित मंद लय के कवि हैं |

2 ‘ताप के तापे हुए दिन’ रचना के लिए 1981 ई. में साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला था |

3 इन्होंने हिंदी के अनेक शब्द कोशों के निर्माण में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है |

प्रगतिवादी काव्यधारा के अन्य कवि -

1 डॉ पद्मसिंह शर्मा ‘कमलेश’

रचनाएँ – 
1 तू युवक है – 1949 ई.
2 दूब के आँसू – 1952 ई.
3 धरती पर उतरो -1952 ई.

2. शंकर शैलेन्द्र

रचनाएँ – 
1 न्यौता और चुनौती

3. चन्द्र देव शर्मा

रचनाएँ – 
1 पंडितजी गजब हो रहा है

4. गणपति चन्द्र भंडारी

रचनाएँ – 
1 रक्तदीप

5. विजय चन्द्र

रचनाएँ – 
1 चेहरे
2 जंग लगे सपने
3 वेश्या

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Prayogvad Ki Visheshta [प्रयोगवादी काव्यधारा के प्रमुख कवि]

Prayogvad Ki Visheshta
[प्रयोगवादी काव्यधारा के प्रमुख कवि] 

प्रयोगवाद की परिभाषा

डॉ नगेन्द्र के अनुसार – हिंदी साहित्य में ‘प्रयोगवाद’ नाम उन कविताओं के लिए रूढ़ हो गया है , जो कुछ नये भावबोधों , संवेदनाओं तथा उन्हें प्रेषित करने वाले शिल्पगत चमत्कारों को लेकर शुरू – शुरू में तार – सप्तक के माध्यम से सन 1943 ई. में प्रकाशन जगत में आई और जो प्रगतिशील कविताओं के साथ विकसित होती गयी तथा जिनका समापन नई कविता में हो गया |

प्रयोगवाद के संदर्भ में विशेष तथ्य


1 इस काव्यधारा की कविताओं को ‘प्रयोगवाद’ नाम सर्वप्रथम आचार्य नन्द दुलारे वाजपेयी ने अपने एक निबंध ‘प्रयोगवादी रचनाएँ’ में प्रदान किया था |
2 आगे चलकर प्रयोगवाद का ही विकास नयी कविता के नाम से हुआ था |
3 ‘लोक कल्याण की उपेक्षा’ प्रयोगवाद का सबसे बड़ा दोष माना जाता है |
4 प्रयोगवादी कवि यथार्थवादी हैं | वे भावुकता के स्थान पर ठोस बौद्धिकता को स्वीकार करते हैं |

प्रयोगवादी काव्यधारा की प्रमुख विशेषताएँ

1 अतियथार्थवादिता
2 बौद्धिकता की अतिशयता
3 घोर वैयक्तिकता
4 वाद व विचारधारा का विरोध
5 नवीन उपमानों का प्रयोग
6 निराशावाद
7 साहस और जोखिम
8 व्यापक अनास्था की भावना
9 क्षणवाद
10 सामजिक यथार्थवाद की भावना

प्रगतिवाद व प्रयोगवाद में मुख्य अंतर
1 ‘प्रगतिवादी कविता’ में शोषित वर्ग / निम्न वर्ग को केंद्र में रखा गया है , जबकि ‘प्रयोगवादी कविता’ में स्वयं के जीये हुए यथार्थ जीवन का चित्रण होता है |
2 प्रगतिवादी कविता ‘विचारधारा को महत्त्व’ देती है , जबकि प्रयोगवादी कविता ‘अनुभव को महत्त्व’ देती है |
3 प्रगतिवादी कविता में सामाजिक भावना की प्रधानता दिखाई देती है , जबकि प्रयोगवादी कविता में व्यक्तिगत भावना की प्रधानता दिखाई देती है |
4 प्रगतिवादी कविता में ‘विषयवस्तु को अधिक महत्त्व’ दिया गया है , जबकि प्रयोगवादी कविता में ‘कलात्मकता को अधिक महत्त्व’ दिया गया है |

प्रयोगवादी काव्यधारा के प्रमुख कवि


1. सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय

जन्मकाल – 1911 ई. ( 7 मार्च, 1911 )
मृत्युकाल – 1987 ई. ( 4 अप्रेल, 1987 )
जन्मस्थान – ग्राम – कसिया , जिला – देवरिया

प्रमुख रचनाएँ -
(क) काव्यात्मक रचनाएँ –
1 भग्नदूत -1933 ई.
2 चिंता – 1942 ई.
3 इत्यलम – 1946 ई.
4 हरी घास पर क्षण भर – 1949 ई.
5 बावरा अहेरी – 1954 ई.
6 इंद्रधनु रौंदे हुए – 1957 ई.
7 अरी ओ करुणा प्रभामय – 1959 ई.
8 आँगन के पार द्वार – 1961 ई.
9 कितनी नावों में कितनी बार

(ख) कहानी संग्रह –
1 परम्परा
2 त्रिपथगा
3 जयदोल
4 कोठरी की बात
5 शरणार्थी
6 मेरी प्रिय कहानियाँ

(ग) उपन्यास –
1 शेखर एक जीवनी
2 नदी के द्वीप
3 अपने – अपने अजनबी

विशेष तथ्य -
1 ‘आँगन के पार द्वार’ रचना के लिए इनको 1964 ई. में ‘साहित्य अकादमी पुरस्कार’ प्राप्त हुआ था |
2 ‘कितनी नावों में कितनी बार’ रचना के लिए इनको 1978 ई. में ‘भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार’ प्राप्त हुआ था |
3 बावरा – अहेरी इनके जीवन दर्शन को प्रतिबिंबित करने वाली रचना है |
4 हिंदी साहित्य में इनको ‘कठिन गद्य का प्रेत’ भी कहा जाता है |
5 इनको व्यष्टि चेतना का कवि भी कहा जाता है |

2. भवानी प्रसाद मिश्र

जन्मकाल – 1914 ई.
मृत्युकाल – 1985 ई.
जन्मस्थान – ग्राम – टिमरणी , जिला – होशंगाबाद

प्रमुख रचनाएँ -
1 गीत फरोश
2 सतपुड़ा के जंगल
3 चकित है दुःख
4 टूटने का सुख
5 त्रिकाल संध्या
6 अनाम तुम आते हो
7 कालजयी
8 फसलें और फूल
9 बुनी हुई रस्सी
10 सन्नाटा
11 वाणी की दीनता

विशेष तथ्य
1. इनकी सहज भाषा को देखकर गाँधी जी के चरखे की सहजता का आभास होता है , जिसके कारण इनको ‘कविता का गाँधी’ भी कहा जाता है |
2. मध्य प्रदेश सरकार ने इनको ‘शिखर सम्मान’ प्रदान किया गया था |
3. ‘बुनी हुई रस्सी’ रचना के लिए इनको 1972 ई. में ‘साहित्य अकादमी पुरस्कार’ प्राप्त हुआ था |

3. गजानन माधव ‘मुक्तिबोध


जन्मकाल – 1917 ई.
मृत्युकाल – 1964 ई.
जन्मस्थान – श्योपुर (ग्वालियर )

प्रमुख रचनाएँ -
(क) काव्य संग्रह
1 चाँद का मुँह टेढ़ा है – 1964 ई.
2 भूरी – भूरी खाक धूल – 1980 ई.

(ख) प्रसिद्ध कविताएँ
1 अंधेरे में
2 ब्रह्मराक्षस
3 पूँजीवाद समाज के प्रति
4 दिमागी गुहांधकार

(ग) गद्य रचना
1 भारत : इतिहास और संस्कृति ( मध्य प्रदेश सरकार द्वारा 19 सितम्बर, 1962 ई. को इस पुस्तक पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया था | )

विशेष तथ्य –
1 इनकी कविताओं को ‘स्वाधीन भारत का इस्पाती ढाँचा’ कहा जाता है |
2 इनको ‘तीव्र इन्द्रिय बोध का कवि’ , ‘भयानक ख़बरों का कवि’ एवं ‘फैंटेसी का कवि’ भी कहा जाता है |

4 गिरिजा कुमार माथुर

जन्मकाल – 1918 ई.
मृत्युकाल – 1994 ई.
जन्मस्थान – अशोकनगर (मध्य प्रदेश)

प्रमुख रचनाएँ -

1 मंजीर
2 नाश और निर्माण
3 धूप के धान
4 शिलापंख चमकीले
5 छाया मत छूना मन
6 भीतरी नदी की यात्रा
7 साक्षी रहे वर्तमान
8 मैं वक्त के हूँ सामने
9 मुझे और अभी कहना है

विशेष तथ्य -
1 ये रोमानी मिज़ाज के कवि माने जाते हैं |
2 ये ‘हम होंगे कामयाब , हम होंगे कामयाब’ गीत के रचनाकार हैं |
3 ‘मैं वक्त के हूँ सामने’ रचना के लिए इनको1991 ई. में साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला |

5. धर्मवीर भारती

जन्मकाल – 1926 ई.
मृत्युकाल – 1997 ई.
जन्मस्थान – इलाहाबाद

प्रमुख रचनाएँ -
1 ठंडा लोहा – 1952 ई.
2 सात गीत वर्ष – 1959 ई.
3 अंधा युग (गीतिनाट्य)
4 कनुप्रिया
5 सपना अभी भी – 1993

प्रसिद्ध कविताएँ -
1 प्रमथ्यु गाथा
2 सृष्टि का आखिरी आदमी
3 देशांतर
4 टूटा पहिया

विशेष तथ्य -
1 ये 1987 ई. तक ‘धर्मयुग’ पत्रिका के सम्पादक रहे |
2 आपके द्वारा रचित ‘सूरज का सातवाँ घोड़ा’ रचना पर एक टी वी धारावाहिक भी प्रसारित हुआ था |

6 नरेश मेहता

जन्मकाल – 1922 ई.

प्रमुख रचनाएँ -

1 वनपांखी सुनो
2 बोलने दो चीड़ को
3 मेरा समर्पित एकांत उत्सव
4 शबरी
5 महा प्रस्थान

7 शमशेर बहादुर सिंह

जन्मकाल – 1911 ई.
मृत्युकाल – 1993 ई.
जन्मस्थान – देहरादून

प्रमुख रचनाएँ -
1 अमन का राग
2 चुका भी नहीं हूँ मैं
3 इतने पास अपने
4 काल तुझसे होड़ मेरी
5 उदिता
6 बात बोलेगी हम नहीं

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Tuesday 17 July 2018

Kavya Prayojan [ काव्य – प्रयोजन ]

Kavya Prayojan [ काव्य – प्रयोजन ]
Kavya Prayojan [ काव्य – प्रयोजन ]

प्रयोजन का अर्थ है उद्देश्य – कोई भी कार्य बिना प्रयोजन के नहीं किया जाता | माना जाता है कि - 
 “प्रयोजनं विना तु मन्दोऽपि न प्रवर्तते |” 

काव्य प्रयोजन के विषय में संस्कृत आचार्यों का मत 

1. आचार्य भरतमुनि के अनुसार – भरतमुनि ने अपने ग्रन्थ नाट्यशास्त्र में लिखा है – 
“धर्मं यशस्यं आयुष्यं हितं बुद्धिविवर्धनम् | लोकोपदेशजननं नाट्यमेतद् भविष्यति ||” 

अर्थात् एक नाटक (नाट्य काव्य ) लेखन के निम्न छह प्रयोजन माने जा सकते हैं – 
1 धर्म
2 यश
3 आयु
4 हित
5 बुद्धि का विकास
6 लौकिक ज्ञान

अन्य स्थान पर वे लिखते हैं – 
दु:खार्तानां श्रमार्तानां शोकार्तानां तपस्वीनाम् | विश्रान्तिजननं काले नाट्यमेतद् भविष्यति ||” 

अर्थात् दु:खार्त , श्रमार्त एवं शोकार्त व्यक्ति को सुख और शांति की प्राप्ति ही काव्य लेखन का प्रयोजन है | 

2. आचार्य भामह के अनुसार – भामह की रचना काव्यालंकार के अनुसार काव्य प्रयोजन है – 
“धर्मार्थकाममोक्षेषु वैचक्षण्यं कलासु च | करोति कीर्तिं प्रीतिञ्च साधुकाव्य निबन्धनम् ||” 

अर्थात् आचार्य भामह ने काव्य के निम्न प्रयोजन स्वीकार किए हैं – 
1 पुरुषार्थ चतुष्टय ( धर्म , अर्थ , काम , मोक्ष ) की प्राप्ति
2 कलाओं में निपुणता
3 कीर्ति (यश ) और प्रीति (आनंद ) की प्राप्ति |
3. आचार्य मम्मट के अनुसार – आचार्य मम्मट ने अपनी रचना ‘काव्यप्रकाश’ में काव्य प्रयोजनों को इस प्रकार व्यक्त किया है – 
“काव्यं यशसेऽर्थकृते व्यवहारविदे शिवेतरक्षतये | सद्यः परिनिर्वृत्त्ये कान्तासम्मितयोपदेशयुजे || 

मम्मट के अनुसार काव्य के छह प्रयोजन हैं , जो इस प्रकार हैं – 
1 यश प्राप्ति
2 अर्थ प्राप्ति
3 लोक व्यवहार का ज्ञान
4 अनिष्ट का निवारण
5 आत्मशांति
6 कान्तासम्मित उपदेश
1. यश प्राप्ति – काव्य लेखन से कवि को यश प्राप्त होता है और वह सदा के लिए अमर हो जाता है | 

2. अर्थ प्राप्ति – काव्य लेखन से कवि को अर्थ अर्थात् धन की प्राप्ति होती है | 

3. लोक व्यवहार का ज्ञान – इसका संबंध पाठकों से है अर्थात् एक श्रेष्ठ काव्य के पठन से पाठकों को मानवोचित शिक्षा प्राप्त होती है | 

4. अनिष्ट का निवारण – यहाँ ‘शिवेतर’ का अर्थ है – अमंगल और ‘क्षतये’ का अर्थ है – विनाश अर्थात् काव्य लेखन से कवि के एवं काव्य के पठन से पाठक के अनिष्ट का निवारण होता है | 

5. आत्म शांति – इसका संबंध मुख्यत: पाठक से है अर्थात् काव्य पठन से पाठक को पढ़ने के साथ ही आनंद का अनुभव होता है और उसे परम शांति की प्राप्ति होती है | 

6. कान्तासम्मित उपदेश – उपदेश तीन प्रकार के माने जाते हैं – 
(क) प्रभु सम्मित उपदेश – ऐसा उपदेश जो हमारे लिए हितकर तो होता है ,परन्तु रुचिकर नहीं होता , वह प्रभु सम्मित उपदेश कहलाता है |
(ख) मित्र सम्मित उपदेश – यह उपदेश हितकर भी होता है और रुचिकर भी ,परन्तु इसकी अवहेलना भी की जा सकती है |
(ग) कान्तासम्मित उपदेश - यह उपदेश हितकर भी होता है और रुचिकर भी होता है तथा इसकी कभी अवहेलना भी नहीं की जा सकती है | काव्य का उपदेश इसी श्रेणी का उपदेश माना जाता है |

4 आचार्य विश्वनाथ के अनुसार – विश्वनाथ ने अपने ग्रन्थ ‘साहित्यदर्पण’ में काव्य प्रयोजनों का विवेचन इस प्रकार किया गया है – 
“चतुर्वर्गफलप्राप्ति: सुखादल्पधियामपि | काव्यादेव यतस्तेन तत्स्वरूपं निरुप्यते ||” 

हिंदी कवियों का मत 

1. तुलसीदास – तुलसीदास ने ‘स्वान्त: सुखाय’ को साहित्य का उद्देश्य मानते हुए लिखा है – 
‘स्वान्त: सुखाय तुलसी रघुनाथा गाथा भाषा निबंध मतिमंजुल मातनोति |’ 

2. भिखारीदास – यश को काव्य का मुख्य प्रयोजन मानते हैं – 
एकन्ह को जसही सों प्रयोजन है रसखानि रहीम की नाई | 
दास कवित्तन्ह की चरचा बुधिवन्तन को सुख दै सब ठाई || 

इन्होंने काव्य के 5 प्रयोजन बताये हैं तप: पुंज का फल , संपत्ति लोभ , यशप्राप्ति , सहृदयों को आनंदोपलाब्धि तथा सुखपूर्वक शिक्षा की प्राप्ति | 

3. कुलपति मिश्र – आचार्य कुलपति मिश्र ने यश ,धन , आनंद और व्यवहार ज्ञान को काव्य का प्रयोजन बताया है | 

4. सोमनाथ – आचार्य सोमनाथ ने कीर्ति , धन , मनोरंजन , अनिष्टनाश और उपदेश को काव्य का प्रयोजन स्वीकार किया है | 

5 मैथिलीशरण गुप्त – राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने मनोरंजन और उपदेश को काव्य का प्रयोजन माना – 
केवल मनोरंजन न कवि का कर्म होना चाहिए | उसमें उचित उपदेश का भी मर्म होना चाहिए || 

6. डॉ नगेन्द्र – नगेन्द्र की दृष्टि में काव्य के मूलत: 2 प्रयोजन हैं – आनंद और लोकमंगल , जिनमें सापेक्षिक मूल्य आनंद का ही अधिक है | 

7. डॉ गुलाबराय – गुलाबराय के मत में रसानंद ही जीवन का रस है | 

8. प्रेमचंद – साहित्य का उद्देश्य हमारी अनुभूति की तीव्रता को बढ़ाना है | 

पाश्चात्य चिंतकों के मत 

1. सुकरात – इनके अनुसार दैवी प्रेरणा काव्य की मूल प्रेरणा है | 

2. प्लेटो – प्लेटो लोकमंगल को काव्य का चरम लक्ष्य मानते हैं | 

3. अरस्तू – इनके अनुसार कला का विशिष्ट उद्देश्य आनंद है | यह अनैतिक नहीं हो सकता | 

4. होरेस – होरेस आनंद और लोककल्याण को ही काव्य का प्रयोजन स्वीकार करते हैं | 

5. मैथ्यू आर्नल्ड – इनकी दृष्टि में जीवन की व्याख्या करना ही काव्य का प्रयोजन है | 

6. ड्राइडन – इनके अनुसार स्वान्तः सुखाय और परजन हिताय काव्य के प्रयोजन हैं |

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