समास (compound)
शब्द – वर्णों से मिश्रित सार्थक इकाई शब्द कहलाती है ; जैसे – ईश्वर
पद – जब शब्द वाक्य में प्रयुक्त हो जाता है तो पद बन जाता है |
जैसे - ईश्वर ने सभी जीवों को बनाया है |समास = सम् + आस से मिलकर बना है जिसका अभिप्राय है शब्दों अथवा पदों को पास -पास लाना |यह जो शब्दों को पास -पास लाने की प्रक्रिया है इस प्रक्रिया को संक्षिप्तता की प्रक्रिया कहा जाता है | संक्षिप्तता की प्रक्रिया से बनाए जाने वाले यौगिक शब्द को समस्त पद अथवा सामासिक पद कहा जाता है |
समास विग्रह – पास -पास लाकर जोड़े हुए शब्दों को जब अलग -अलग किया जाता है तो इस अलग करने की प्रक्रिया को समास विग्रह कहा जाता है |
चारपाई – समस्त पद
चार हैं पाए जिसके – समास विग्रह
यज्ञवेदी – समस्त पद
यज्ञ के लिए वेदी – समास विग्रह
समास की आवश्यकता – समास की आवश्यकता कम से कम शब्दों द्वारा वही अर्थ व्यक्त करने के लिए होती है | अर्थात जिसमें अर्थ वही हो परन्तु कम शब्दों का प्रयोग किया गया हो | यह शब्द प्रयोग की कमी दो तरह से हो सकती है –
1. एक तो शब्द कम करके जैसे सुख और दुःख में तीन शब्दों के समूह में से समस्त पद बनाते समय और शब्द को कम कर दिया जाता है और सुख – दुःख लिखा जाता है |इससे भी वही अर्थ निकलता है जो सुख और दुःख से निकलता है |
2. दूसरे प्रकार की संक्षिप्तता दो शब्दों को पास में लाकर दोनों शब्दों के अर्थो से भिन्न एक तीसरा अर्थ देने से संबंधित है | एक नए अर्थ के लिए नए शब्द का प्रयोग न कर पुराने शब्दों से ही नया अर्थ निकाल लिया जाता है जैसे गिरिधर से नया अर्थ श्रीकृष्ण निकलता है |
समास व संधि में अंतर
1. समास में शब्दों का मेल होता है जबकि संधि में वर्णों का मेल होता है |
जैसे – लम्बा है उदर जिसका – लम्बोदर – समास ( दो या दो से अधिक शब्दों का मेल )
विद्या + आलय = विद्यालय – संधि ( दो वर्णों का मेल )
2. शब्दों को अलग करने की प्रक्रिया को समास विग्रह कहा जाता है जबकि वर्णों को अलग करने की प्रक्रिया को संधि विच्छेद कहा जाता है | जैसे –
हिमालय = हिम + आलय – संधि विच्छेद ( वर्णों को अलग करना )
राजपुरुष – राजा का पुरुष – समास विग्रह ( शब्दों को अलग करना )
3. जहाँ समास हो जरुरी नहीं है वहाँ संधि भी हो क्योंकि संधि में शब्दों को कम ज्यादा नहीं किया जा सकता जबकि समास में कम या अधिक किया जा सकता है |
समास के प्रकार
समास दो शब्दों या पदों का योग होता है | इन दो पदों में पहले पद को पूर्व पद तथा दूसरे को उत्तर पद कहते है | जैसे –
यथाशक्ति – यथा पूर्व पद है और शक्ति उत्तर पद
इन दोनों पदों में से किसी एक पद का अर्थ प्रमुख होता है | इसी अर्थ की प्रधानता के आधार पर समास के चार भेद होते हैं –
1. जिस समास में अर्थ की दृष्टि से पहला पद प्रधान हो / प्रमुख हो वह – अव्ययीभाव समास
2. जिसमें दूसरे पद का अर्थ प्रधान हो वह – तत्पुरुष समास3. जिसमें दोनों शब्दों का अर्थ समान रूप से प्रधान हो वह – द्वन्द समास4. जिसमें दोनों ही शब्दों के मूल अर्थो से भिन्न तीसरा अर्थ निकले वह - बहुव्रीहि
१. कर्मधारय समास २. द्विगु समास
अव्ययीभाव समास
1. पूर्व पद अव्यय होता है | अव्यय उसे कहते हैं जिसका व्यय अर्थात विकार नहीं होता तात्पर्य है कि जिसके रूप में किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं होता |
2. इसका पहला पद प्रधान होता है ; जैसे यथासंभव शब्द में पहला पद यथा है वह अव्यय है तथा इसका अर्थ भी प्रधान है क्योंकि इसका अर्थ है – जैसा संभव हो सके |यहाँ संभव हो सकना जैसा पर निर्भर है |
3. इस समास में दोनों शब्दों से मिलकर जो शब्द बनता है वह भी अव्यय ही होता है |
अव्ययीभाव समास के उदाहरण
यथाशक्ति – शक्ति के अनुसार
आजन्म – जन्म से लेकर
यथामति – मति के अनुसार
आमरण – मृत्यु तक
प्रतिदिन – प्रत्येक दिन
आजीवन – जीवनभर
प्रत्यक्ष - आँखों के सामने
बेशक - बिना शक
हरघड़ी - प्रत्येक घड़ी
बेखटके – बिना खटके
एक ही शब्द की आवृत्ति के कारण बना समस्त पद भी अव्ययीभाव समास ही होता है | जैसे –
रातोंरात – रात ही रात में
हाथोंहाथ – एक हाथ से दूसरे हाथ में
घड़ी – घड़ी – हर घड़ी
गली – गली – एक गली से दूसरी गली में
दर – दर - एक दरवाज़े से दूसरे दरवाज़े पर
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तत्पुरुष समास
1 तत्पुरुष का अर्थ ही है ‘उसका पुरुष’ जैसे – राजकुमार (राजा का कुमार ) यहाँ ‘राजकुमार’ शब्द में दूसरा पद कुमार है अत: वह प्रधान है |
2 इस समास में पहला शब्द दूसरे शब्द पर निर्भर होता है अत: दूसरा शब्द (उत्तर पद ) प्रधान होता है |
3 इस समास में दोनों शब्दों के बीच आने वाले कारक चिह्नों – को ,से (साधन अर्थ में ),के लिए , से (अलग होने अर्थ में ), का / के / की , में पर का लोप होता है | कारक चिह्नों के अनुसार इस समास के छ: भेद हो जाते हैं |
4 कर्ता कारक व संबोधन कारक को इसमें सम्मिलित नहीं किया जाता |
तत्पुरुष समास के भेद
१. कर्म तत्पुरुष समास – ‘को’ चिह्न का लोप करने से यह समास बनता है ; जैसे –
स्वर्गप्राप्त – स्वर्ग को प्राप्त
शरणागत – शरण को आया हुआ
वनगमन – वन को गमन
गगनचुम्बी – गगन को चूमने वाला
यश्प्राप्त – यश को प्राप्त
सर्वज्ञ - सबको जानने वाला
२. करण तत्पुरुष समास – करण कारक के दो चिह्न होते हैं – ‘से’ और ‘के द्वारा’ | जब इन चिह्नों का लोप करके समास बनता है तो वह करण तत्पुरुष समास कहलाता है |
मनमाना – मन से माना हुआ
ईश्वरदत्त – ईश्वर द्वारा दिया हुआ
श्रमसाध्य – श्रम से साधा हुआ
सूररचित – सूरदास द्वारा रचित
रोगपीड़ित – रोग से पीड़ित
तुलसीकृत – तुलसी द्वारा किया हुआ
गुणयुक्त - गुण से युक्त
रेखांकित - रेखा के द्वारा अंकित
३. सम्प्रदान तत्पुरुष समास – इसमें कारक चिह्न – ‘के लिए’ का लोप हो जाता है |
देशभक्ति – देश के लिए भक्ति
मालगोदाम – माल के लिए गोदाम
युद्धभूमि – युद्ध के लिए भूमि
विद्यालय – विद्या के लिए आलय
गुरुदक्षिणा – गुरु के लिए दक्षिणा
देवालय – देवता के लिए आलय
४. अपादान तत्पुरुष समास – अपादान कारक का चिह्न ‘से’ ( अलग होने के अर्थ में , भयभीत होने के अर्थ में ) का लोप हो जाता है |
जन्मान्ध – जन्म से अन्धा
भयभीत – भय से भीत
ऋणमुक्त – ऋण से मुक्त
गुणहीन – गुणों से हीन
रोगमुक्त – रोग से मुक्त
देशनिकाला – देश से निकाला
५. सम्बन्ध तत्पुरुष समास – सम्बन्ध कारक के चिह्न ‘का’ ‘के’ ‘की’ का लोप होता है |
गंगाजल – गंगा का जल
सेनापति – सेना का पति
ऋषिकन्या – ऋषि की कन्या
राष्ट्रपति – राष्ट्र का पति
घुड़दौड़ - घोड़ो की दौड़
नरेश - नरों के ईश
६. अधिकरण तत्पुरुष समास – अधिकरण कारक के चिह्न ‘में’ और ‘पर’ का लोप होता है |
कविराज – कवियों में राजा
लोकप्रिय – लोक में प्रिय
वनवास – वन में वास
कार्यकुशल – कार्य में कुशल
आपबीती – आप पर बीती हुई
ध्यानमग्न – ध्यान में मग्न
तत्पुरुष समास के उपभेद –
- कर्मधारय समास
- द्विगु समास
कर्मधारय समास
1. इस समास में पूर्वपद तथा उत्तरपद में विशेषण – विशेष्य का अथवा उपमान – उपमेय का सम्बन्ध माना जाता है |विशेषण – विशेष्य का सम्बन्धविशेषण – जो विशेषता बताई जाएविशेष्य – जिसकी विशेषता बताई जाए
उपमान – उपमेय का सम्बन्धउपमान – जिससे उपमा दी जाएउपमेय – जिसे उपमा दी जाए
2. इसका उत्तरपद प्रधान होता है |
3. विग्रह करते समय दोनों पदों के बीच में ‘के समान’ , ‘है जो’ , ‘रूपी’ में से किसी एक शब्द का प्रयोग होता है ; जैसे –
पीताम्बर – पीला है जो अम्बर
मुखचन्द्र – मुख रूपी चन्द्र
कृष्णसर्प – कृष्ण है जो सर्प
भवसागर – भव रूपी सागर
महाराज – महान है जो राजा
कनकलता – कनक के समान लता
द्विगु समास
1 इस समास का पहला शब्द संख्यावाचक हो और पूरा समास समूह अथवा समाहार का बोध कराता है |
2 विग्रह करते समय इस समास में समूह अथवा समाहार शब्द का प्रयोग किया जाता है ;जैसे -
पंचवटी – पाँच वटो का समूह
सतसई – सात सौ दोहों का समाहार
सप्तसिंधु – सात सिन्धुओं का समाहार
दोपहर – दो पहरों का समूह
नवग्रह - नौ ग्रहों का समूह
शताब्दी – सौ अब्दों का समूह
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द्वन्द समास
1. इस समास में दोनों ही पद प्रधान होते हैं |
2. विग्रह करते समय दोनों पदों के बीच में ‘और’ , ‘तथा’ , ‘या’ , ‘अथवा’ शब्दों में से किसी एक शब्द का प्रयोग किया जाता है ; जैसे –
भाई – बहन - भाई और बहन
लाभ – हानि - लाभ या हानि
राजा – रंक - राजा और रंक
नर – नारी - नर या नारी
छोटा – बड़ा - छोटा अथवा बड़ा
अच्छा – बुरा - अच्छा और बुरा
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बहुव्रीहि समास
1 इस समास में दोनों पदों में से कोई भी पद प्रधान नहीं होता | दोनों मिलकर किसी तीसरे पद के लिए कुछ कहते हैं अर्थात कोई तीसरा ही अर्थ देते हैं |
2 इसमें तीसरा पद प्रधान होता है | दिए गए दोनों पद तीसरे पद के विशेषण होते हैं |
नीलकंठ – नीला है कंठ जिसका अर्थात शिव
गिरिधर – गिरी को धारण किया है जिसने अर्थात श्रीकृष्ण
त्रिलोचन – तीन हैं लोचन जिसके अर्थात शिव
चतुर्भुज – चार भुजाएँ हैं जिसकी अर्थात विष्णु
गजानन – गज के समान है आनन जिसका अर्थात गणेश
निशाचर – निशा में चलता है जो अर्थात राक्षस
कर्मधारय , द्विगु तथा बहुव्रीहि समास में अंतर
कर्मधारय व द्विगु समास में एक विशेषण होता है और दूसरा विशेष्य जबकि बहुव्रीहि समास में दोनों ही पद विशेषण होते हैं और तीसरा पद विशेष्य होता है |
एक ही समस्त पद में तीनों रूप देखे जा सकते हैं ; जैसे –
दशानन –
दस हैं जो आनन
दस हैं जो आनन
(कर्मधारय समास)
दस आननों का समूह
(द्विगु समास)
दस आनन हैं जिसके अर्थात रावण
(बहुव्रीहि समास)
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