आचार्य विश्वनाथ के अनुसार – वाक्यं रसात्मकं काव्यम्
अर्थात् रस युक्त वाक्य ही काव्य है | काव्य में रस का होना अनिवार्य है |
रस के अवयव / अंग
भरत मुनि के अनुसार – विभावानुभावव्यभिचारिसंयोगाद्रसनिष्पत्ति
विभाव , अनुभाव व व्यभिचारी भावों के संयोग से रस की निष्पत्ति होती है | अर्थात् इसके अनुसार विभाव , अनुभाव व व्यभिचारी भाव रस के अवयव हैं इनके अतिरिक्त स्थायी भाव भी रस के अंग कहे जाते हैं | इस प्रकार रस के अवयव हैं –
1. स्थायी भाव
2. विभाव
3. अनुभाव
4. संचारी या व्यभिचारी भाव
१. स्थायी भाव – मन के भीतर स्थायी रूप से रहने वाला भाव स्थायी भाव कहलाता है | प्रत्येक मनुष्य के चित्त में प्रेम , दुःख ,क्रोध, आश्चर्य आदि भाव स्थायी रूप से विद्यमान रहते हैं | ये ही स्थायी भाव होते हैं |ये हमारे ह्रदय में छिपे रहते हैं और अनुकूल वातावरण मिलने पर स्वयं ही जाग्रत हो जाते हैं |
रतिर्हासश्च शोकश्च क्रोधोत्साहो भयं तथा |
जुगुप्सा विस्मयाश्चेति स्थायिभावा: प्रकीर्तिता: |
निर्वेद: स्थायिभावोऽस्ति शान्तोऽपि नवमो रस: ||
भरत मुनि ने आठ रस तथा आठ ही स्थायी भाव माने थे ,परन्तु बाद में निर्वेद एक और भाव तथा शांत रस को नवां रस माना गया | परवर्ती काल के कवियों ने तो ‘वात्सल्य’ को दसवां रस तथा ‘वत्सल’ को उसका स्थायी भाव भी स्वीकार किया है |
२. विभाव – जो कारण ह्रदय में स्थित स्थायी भाव को जाग्रत तथा उद्दीप्त करें उन्हें विभाव कहा जाता है अर्थात् रसानुभूति के कारणों को विभाव खा जाता है | विभाव के दो भेद हैं -
- आलंबन विभाव - जिन व्यक्तियों या पात्रों के सहारे से स्थायी भाव उत्पन्न होते हैं ,वे आलंबन विभाव कहलाते हैं ; जैसे – नायक – नायिका
- आश्रय – जिस व्यक्ति के मन में रति आदि विभिन्न भाव उत्पन्न होते हैं , उसे आश्रय कहते हैं |
- विषय – जिस व्यक्ति या वस्तु के लिए आश्रय के मन में भाव उत्पन्न होते हैं , उसे विषय कहते हैं |
जैसे – नायिका को देखकर नायक के मन में भाव उत्पन्न होते हैं तो नायक आश्रय है तथा नायिका विषय है |
- उद्दीपन विभाव – स्थायी भावों को उदीप्त या तीव्र करने वाले कारण उद्दीपन विभाव होते हैं ; जैसे – नायक - नायिका का रूप सौन्दर्य , पात्रों की चेष्टाएँ , ऋतु , उद्यान , चाँदनी , देश – काल आदि उद्दीपन विभाव होते हैं |
३. अनुभाव – ‘अनुभावो भाव बोधक’ अर्थात् भाव का बोध कराने वाले अनुभाव होते हैं |
रस की अनुभूति में विभाव कारण रूप होते हैं तो अनुभाव कार्य रूप होते हैं | भावों का अनुभव कराने के कारण ही ये अनुभाव कहलाते हैं | अनुभाव चार प्रकार के होते हैं –
1. सात्विक अनुभाव – जो अनुभाव मन में आए भावों के कारण स्वत: प्रकट हो जाते हैं वे सात्विक होते हैं | ये अन्त:करण की वास्तविक दशा को दिखाते हैं | सात्विक अनुभाव आठ हैं -स्तंभ ,स्वेद ,रोमांच ,वेपथु ,स्वरभंग ,वैवर्ण्य ,अश्रु और प्रलय |
2. कायिक अनुभाव – शरीर में होने वाले अनुभाव कायिक होते हैं |अर्थात् शरीर की चेष्टाओं से व्यक्त कार्य कायिक अनुभाव कहलाते हैं |
3. वाचिक अनुभाव – वाणी के द्वारा मनोभावों की अभिव्यक्ति (परस्परालाप ) इसमें होती है , इसे मानसिक अनुभाव भी कहा जाता है |
4. आहार्य अनुभाव - नायक - नायिका के द्वारा पात्रों के अनुसार ,वेशभूषा , अलंकार आदि को धारण करना | वेशभूषा , अलंकार इत्यादि के द्वारा भावों का प्रदर्शन करना आहार्य अनुभाव कहलाता है |
४. संचारी या व्यभिचारी भाव – मन के चंचल या अस्थिर विकारों को संचारी भाव कहते हैं | एक रस के साथ अनेक स्थायी भाव आते हैं तथा एक संचारी भाव किसी एक स्थायी भाव या रस के साथ नहीं रहता बल्कि अनेक रसों के साथ रहता है यही उसकी व्यभिचार की स्थिति है |
संचारी भाव पानी में उठने वाले बुलबुलों की तरह होते हैं जो उठते हैं और लुप्त हो जाते हैं |
संचारी भावों की संख्या 33 मानी गई है, जो इस प्रकार हैं –
(1) निर्वेद (2) ग्लानि (3) शंका (4) असूया (5) मद (6) श्रम (7) आलस्य (8) दैन्य (9) चिंता (10) मोह (11) स्मृति (12) धृति (13) व्रीडा (14) चपलता (15) हर्ष (16) आवेग (17) जड़ता (18) गर्व (19) विषाद (20) औत्सुक्य (21) निद्रा (22) अपस्मार (23) सुप्त (24) विबोध (25) अमर्ष (26) अवहित्था (27) उग्रता (28) मति (29) व्याधि (30) उन्माद (31) मरण (32) त्रास (33) वितर्क |
रसों के प्रकार
भरत मुनि के नाट्यशास्त्र में आठ रसों की चर्चा की गई है परन्तु परवर्ती आचार्यों के अनुसार रसों की संख्या नौ मानी गई है –
‘श्रृंगार हास्य करुण रौद्र वीर भयानका: |
वीभत्साद्भूतसंज्ञो चेच्छान्तोऽपि नवमो रस: |’
इन रसों के अतिरिक्त महाकवि सूरदास की रचनाओं से ‘वात्सल्य रस’ तथा उसके पश्चात ‘भक्ति रस’ को भी माना गया और कुल रसों की संख्या 11 मान ली गई |
1. श्रृंगार रस
जब नायक – नायिका के मन में एक – दूसरे के प्रति प्रेम उत्पन्न होकर विभाव, अनुभाव व संचारी भावों के योग से स्थायी भाव ‘रति’ जाग्रत हो तो वह श्रृंगार रस कहलाता है | इसी रस को रसराज भी खा जाता है | इसके दो भेद हैं –
१) संयोग श्रृंगार - नायक – नायिका का मिलना संयोग श्रृंगार कहलाता है | इसमे प्रेमपूर्ण चेष्टाओं व क्रियाकलापों का वर्णन किया जाता है ; जैसे –
बतरस लालच लाल की मुरली धरी लुकाय |
सौंह करै भौंहनु हंसे देन कहै नटि जाय ||
२) वियोग श्रृंगार – जहाँ नायक – नायिका के वियोग का वर्णन हो , वहाँ वियोग श्रृंगार होता है ; जैसे –
‘विरह का जलजात जीवन , विरह का जलजात !
वेदना में जन्म करुणा में मिला आवास ;
अश्रु चुनता दिवस इसका , अश्रु गिनती रात !
जीवन , विरह का जलजात !’
वेदना में जन्म करुणा में मिला आवास ;
अश्रु चुनता दिवस इसका , अश्रु गिनती रात !
जीवन , विरह का जलजात !’
2. हास्य रस
– जहाँ पर किसी की विचित्र वेशभूषा ,विकृत आकृति , क्रियाकलाप ,रूप -रंग , वाणी एवं व्यवहार को देखकर , सुनकर एवं पढ़कर ह्रदय में हास का भाव उत्पन्न हो ,वहाँ हास्य रस होता है | इसका स्थायी भाव है - हास |
जैसे – सखि ! बात सुनों इक मोहन की ,
निकसी मटुकी सिर रीती ले कै |
निकसी उहि गैल हुते जहाँ मोहन ,
लीनी उतारि तबै चल कै |
पतुकी धरि स्याय खिसाय रहे ,
उत ग्वारि हँसी मुख आँचल कै ||
3. करुण रस
– जहाँ पर किसी प्रियजन के कष्ट ,शोक , दुःख के प्रसंग के कारण अथवा किसी प्रकार के अनिष्ट की आशंका के फलस्वरूप ह्रदय में पीड़ा या क्षोभ का भाव उत्पन्न हो वहाँ करुण रस होता है | करुण रस का स्थायी भाव – शोक है | जैसे -
देखि सुदामा की दीन दसा करूना करि कै करुनानिधि रोये |
पानी परात को हाथ छुयो नहिं ,नैनन हि के जल सों पग धोये ||
4. रौद्र रस
– जहाँ पर किसी के असहनीय वचन , अपमान जनक क्रियाओं के फलस्वरूप क्रोध का भाव उत्पन्न हो तो वहाँ रौद्र रस होता है | रौद्र रस का स्थायी भाव ‘क्रोध’ है |
जैसे - तुमने धनुष तोड़ा शशिशेखर का ,
मेरे नेत्र देखो ,
इनकी आग में डूब जाओगे सवंश राघव |
5. वीर रस
– युद्ध अथवा किसी कठिन कार्य को करने के लिए ह्रदय में निहित ‘उत्साह’ स्थायी भाव के जाग्रत होने के फलस्वरूप जो भाव उत्पन्न होता है ,उसे वीर रस कहते हैं | जैसे -
मैं सत्य कहता हूँ सखे ! सुकुमार मत जानो मुझे |
यमराज से भी युद्ध में प्रस्तुत सदा जानो मुझे ||
हे सारथे ! हैं द्रोण क्या ? आवें स्वयं देवेन्द्र भी |
वे भी न जीतेंगे समर में आज क्या मुझसे कभी ||
6. भयानक रस
– जहाँ पर भयानक वस्तुओं ,या दृश्यों को देखकर उसके फलस्वरूप ह्रदय में ‘भय’ का भाव उत्पन्न हो , वहाँ भयानक रस होता है | जैसे -
उधर गरजती सिंधु लहरियाँ ,कुटिल काल के जालों सी |
चली आ रही फैन उगलती , फ़न फैलायें व्यालो सी ||
(जयशंकर प्रसाद )
7. वीभत्स रस
– जहाँ पर किसी अप्रिय , अरुचिकर ,घृणास्पद , वस्तुओं , पदार्थों के प्रसंगों का वर्णन हो , वहाँ वीभत्स रस होता है |वीभत्स रस का स्थायी भाव ‘जुगुप्सा’ है | जैसे -
सिर पर बैठ्यो काग आँख दोउ खात निकारत |
खींचत जीभहिं स्यार अतिहि आनंद कर धारत ||
8. अद्भुत रस
– किसी असाधारण , अलौकिक या आश्चर्यजनक वस्तु , दृश्य या घटना को देखने , सुनने से जब आश्चर्य होता है , तब अद्भुत रस उत्पन्न होता है | अद्भुत रस का स्थायी भाव ‘विस्मय’ है | जैसे -
एक अचंभा देखा रे भाई |
ठाढ़ा सिहं चरावै गाई |
पहले पूत पीछे माई |
चेला के गुरु लागे पाई ||
9. शांत रस
– जहाँ पर भक्ति , नीति, ज्ञान ,वैराग्य ,धर्म ,दर्शन या सांसारिक नश्वरता सबंधी प्रसंगों का वर्णन हो , वहाँ शांत रस होता है | शांत रस का स्थायी भाव है – निर्वेद | जैसे –
माटी कहै कुम्हार से ,तू क्या रौंदे मोय |
एक दिन ऐसा आयेगा मैं रौंदूगी तोय ||
10. वात्सल्य रस
– इस रस का संबंध छोटे बालक – बालिकाओं के प्रति माता – पिता अथवा सगे संबंधियों का प्रेम एवं ममता के भाव से है | वात्सल्य रस का स्थायी भाव है – वत्सल | वात्सल्य रस का स्थायी भाव है – वत्सल | जैसे -
जसोदा हरि पालने झुलावै
हलरावै दुलरावै मल्हावै जोई सोई कछु गावै |
11. भक्ति रस
- इस रस का संबंध ईश्वर के प्रति प्रेम व भक्ति भावना से है ; जैसे –
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
मेरे तो गिरिधर गोपाल दूसरो न कोई |
जाके सिर मोर मुकुट मेरो पति सोई ||
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
स.
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रस का नाम
|
स्थायी भाव
|
आलंबन विभाव
|
उद्दीपन विभाव
|
अनुभाव
|
संचारी भाव
|
1
|
श्रृंगार
|
रति(प्रेम )
|
नायक, नायिका
|
सुंदर प्राकृतिक दृश्य ,मधुर
संगीत , प्रिय की चेष्टाएँ
|
मुख खिलना ,एकटक देखना (संयोग
)
रूदन,विलाप
(वियोग )
|
प्राय: सभी
|
2
|
हास्य
|
हास
|
जिसको देख -सुन कर हँसी
आये
|
विचित्र वेश या कथन या
कोई अन्य विचित्रता
|
हँसना ,लोट -पोट हो जाना
|
हर्ष ,चपलता
|
3
|
करुण
|
शोक
|
प्रिय व्यक्ति का मरना,या
दीन दशा में होना , प्रिय वस्तु का नष्ट हो जाना
|
दीन दशा ,आलंबन के गुणों
का स्मरण
|
रुदन , विलाप , प्रलाप
करना इत्यादि
|
मोह , विषाद दैन्य ,चिंता
|
4
|
वीर
|
उत्साह
|
जिसको देखकर लड़ने का
उत्साह हो जैसे शत्रु या दीन या याचक
|
शत्रु की ललकार , चारणों
के गीत या दीन का दुःख
|
भुजा फड़कना ,सेना का
उत्साह बढ़ाना इत्यादि
|
गर्व ,हर्ष उग्रता
|
5
|
रौद्र
|
क्रोध
|
जिसे देखकर क्रोध आए जैसे
शत्रु
|
शत्रु की चेष्टाएँ ,अनुचित
कथन
|
नेत्र लाल होना , दांत
पीसना ,प्रहार करना
|
गर्व ,चपलता ,उग्रता
|
6
|
भयानक
|
भय
|
जिसे देखकर भय लगे
|
आलंबन की भयंकरता ,उसकी भयंकरता
को बढ़ाने वाली वस्तुएँ
|
कंप ,स्तम्भ ,स्वेद गिरना
,भागना ,मूर्च्छित होना
|
त्रास ,आवेग शंका ,चिंता
|
7
|
वीभत्स
|
जुगुप्सा
|
जिसको देखकर जुगुप्सा हो
जैसे -रुधिर ,माँस
|
दुर्गन्ध , मक्खियों का
भिनभिनाना इत्यादि
|
नाक -भौ सिकोड़ना ,मुँह
बिगाड़ना
|
आवेग, व्याधि
|
8
|
अद्भुत
|
विस्मय
|
आश्चर्यजनक या अलौकिक
व्यक्ति या वस्तु का दर्शन
|
आलंबन के अद्भुत गुण या
कर्म
|
एकटक देखना ,स्तम्भित
होना
|
वितर्क ,आवेग ,जड़ता ,मोह
|
9
|
शांत
|
निर्वेद
|
वैराग्य या शांतिजनक
वस्तु या आत्म -ज्ञान
|
तीर्थयात्रा , सत्संगति ,
पवित्र आश्रम
|
रोमांच , प्रेमाश्रु
गिरना
|
धृति , मति ,हर्ष
|
10
|
वात्सल्य
|
वत्सल
|
संतान ,अनुज
|
बाल – क्रीडाएं
|
प्रसन्न होना ,चूमना
|
हर्ष आदि
|
11
|
भक्ति
|
ईश्वर के प्रति अनुराग
|
इष्टदेव ,देवी ,प्रभु
|
प्रभु की महानता
|
गदगद होना
|
हर्ष आदि
|