1. संदेह अलंकार – जहाँ दो वस्तुओं या क्रियाओं में इतनी समानता हो कि उसमें अनेक वस्तुओं के होने का संदेह हो और यह संदेह अंत तक बना रहे तो वहाँ संदेहालंकार होता है | इसमें या , अथवा ,किधौ ,किंवा, कि आदि वाचक शब्दों का प्रयोग होता है | जैसे -
‘हरि -मुख यह आली ! किधौ, कैधौ उयो मयंक ?
हे सखी ! यह हरि का मुख है या चन्द्रमा उगा है ? यहाँ हरि के मुख को देखकर सखी को निश्चय नहीं होता कि यह हरि का मुख है या चन्द्रमा है |
सारी बीच नारी है, कि नारी बीच सारी है |
सारी है कि नारी है , कि नारी ही की सारी है |
ये छींटे हैं उड़ते , अथवा मोती बिखर रहे हैं ?
2. दृष्टान्त अलंकार – दृष्टांत का अर्थ है – उदाहरण | जब किसी बात को कहकर उसकी सत्यता प्रमाणित करने के लिए उसी ढंग की कोई दूसरी बात कही जाती है | जिससे पूर्व कथन की प्रमाणिकता सिद्ध हो जाए तब वहाँ दृष्टान्त अलंकार होता है |
दृष्टान्त अलंकार में दो स्वतंत्र वाक्य होते हैं ,किन्तु दोनों में एक ही मूल विचार रहता है ,अर्थात् दोनों के अर्थ समान ही होते हैं | दूसरे अर्थों में उपमेय व उपमान में जब बिम्ब – प्रतिबिम्ब का सम्बन्ध होता है तो वहाँ दृष्टान्त अलंकार होता है | जैसे -
करत - करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान |
रसरी आवत जात ही सिल पर पड़त निसान ||
मनुष्य जन्म दुर्लभ अहे , होय न दूजी बार |
पका फल जो गिरी , बहुरी न लागे डार ||
3. अतिशयोक्ति अलंकार – जहाँ किसी वस्तु या बात का वर्णन अत्यधिक बढ़ा- चढ़ा कर किया जाए (लोक सीमा से बढ़ाकर किया जाए ) वहाँ अतिशयोक्ति अलंकार होता है | जैसे -
हनुमान की पूँछ में , लगन न पाई आग |
लंका सगरी जल गई , गए निशाचर भाग ||
यहाँ हनुमान की पूँछ में आग लग भी नहीं पाई और सारी लंका जल गई | सारे राक्षस डरकर भाग गए |
धनुष उठाया ज्यों ही उसने ,और चढ़ाया उस पर बाण |
धरा – सिन्धु नभ काँपे सहसा , विकल हुए जीवों के प्राण ||
4. स्वभावोक्ति अलंकार – जब किसी वस्तु के स्वभाव का वैसा ही वर्णन किया जाए जैसी वह है , उसमें कुछ भी घटाया या बढ़ाया न जाए ; जैसे -
भोजन करत चपल – चित ,इत -उत अवसर पाइ |
भाजि चले किलकात मुख , दधि -ओदन लपटाय ||
यहाँ राम आदि बालकों के बाल – स्वभाव का स्वाभाविक वर्णन किया गया है |
5. मानवीकरण अलंकार – जहाँ जड़ वस्तु या प्रकृति पर मानवीय चेष्टाओं अथवा भावनाओं का आरोप हो वहाँ मानवीकरण अलंकार होता है ; जैसे -
मेघमय आसमान से
उतर रही है
संध्या सुन्दरी परी सी
धीरे धीरे धीरे |
नील परिधान बीच सुकुमार ,
खिल रहा मृदुल अधखुला अंग |
खिला हो ज्यों बिजली का फूल ,
मेघ बन बीच गुलाबी रंग ||
मेघ आए बड़े बन -ठन के सँवर के |
6. विभावना अलंकार – विभावना का अर्थ होता है – बिना कारण | जहाँ कारण के न होने पर भी कार्य का होना वर्णित होता है अर्थात् कारण के नहीं होने पर भी कार्य होता है , वहाँ विभावना अलंकार होता है ; जैसे -
बिन घनस्याम धाम – धाम ब्रज – मंडल में ,
ऊधो ! नित बसति बहार बरसा की है |
वर्षा कार्य के लिए बादल कारण विद्यमान होना चाहिए परन्तु यहाँ कहा गया है कि श्याम घन के न होने पर भी वर्षा की बहार रहती है |
बिन पानी साबुन बिना निर्मल करे सुभाय |
बिनु पग चले सुनै बिना काना |
कर बिनु कर्म करै विधि नाना |
नोट – जब अपूर्ण कारण से कार्य की उत्पत्ति हो , रुकावट होने पर भी कार्य हो जाए एवं जब विपरीत कारण से भी कार्य उत्पन्न हो जाए तो वहाँ भी विभावना अलंकार ही होता है ; जैसे -
कारे घन उमड़ि अंगारे बरसत हैं |
घन से अंगारे नहीं ,पानी बरसता है , जो अंगारों का विरोधी है | परन्तु यहाँ कहा गया है कि घन अंगारे बरसाते हैं | यहाँ विपरीत कारण से कार्य की उत्पत्ति हुई है |
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